कश्तियाँ एक एक कर समंदर में खो गए |
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कश्तियाँ एक एक कर समंदर में खो गए | |
कश्तियाँ एक एक कर समंदर में खो गए |
मैं अक्शर बैठकर जहाँ लहरों को गिनता था ||
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अमावस रात है शहर में रौशनी कैसी?
यह तुम्हारी वापसी है या कोई चाँद छुपा बैठा था?
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यहाँ की आवोहवा में इतनी घुटन तो न थी |
क्यों मेरे आते सबने तलवार सजा रखा था?
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तेरा मुंह फेरना क्या कम है मेरे रुखसत के लिए?
लोगों ने वेवजह सर पे आसमान उठा रखा था ||
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दर्द तो दर्द है तेरे वास्ते कफन भी ओढ़ लूँ मैं |
आखिरी दीदार को मगर आज पलकें बिछा रखा था ||
--शर्त इतनी सी थी की कोई मकां और न हो |
जिस शहर तेरा घर हो इंशा और न हो ||
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सब बूत सा बना बैठा है बासिन्दे तेरे आगे |
और पूछते हैं मुझसे कैसे जिन्दा हूँ तेरे आगे ||
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अब जिन्दा हूँ दो घड़ी तो जरा हवा दे दो |
गर मुजरिम हूँ तुम्हारा मुझे सजा दे दो ||
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मैंने खुद झेला था मेरे हिस्से की तबाही |
जब नाम तुमने मेरा जेहन से मिटा रखा था ||
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कश्तियाँ एक एक कर समंदर में खो गए |
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